ख़ून-ए-नाहक़ का समुंदर नहीं देखा जाता अब तबाही का ये मंज़र नहीं देखा जाता जब से है क़ैद हिसारों में तकब्बुर के अना ख़ुद से ऊँचा कोई पैकर नहीं देखा जाता जाने कब कौन हमें देश निकाला दे दे सर पे लटका हुआ ख़ंजर नहीं देखा जाता जो ज़रीया था शिकम-सेरी-ए-इंसाँ का सदा पेट पर बाँधे है पत्थर नहीं देखा जाता आज इंसाँ है शिकंजे में हसद के ऐसे टूटने पर हैं कई घर नहीं देखा जाता तेरी आज़ुर्दा सी मुस्कान से बेकल है 'शिफ़ा' एक तूफ़ाँ तिरे अंदर नहीं देखा जाता