सँभाल ऐ मिरी मिट्टी बदल न जाऊँ कहीं मुझे रुला दे कि पत्थर में ढल न जाऊँ कहीं कमान-ए-जाँ में हूँ इक आख़िरी नफ़स का तीर मैं दस्तरस से भी अपनी निकल न जाऊँ कहीं समेट ले मिरे महताब मुझ को सीने में झुलस रही है कोई शय मैं जल न जाऊँ कहीं वफ़ा के नाम पे दे जो फ़रेब दे मुझ को तबाह होने से पहले सँभल न जाऊँ कहीं ग़रीब-ए-शहर-ए-सुख़न अपनी क़द्र-ओ-क़ीमत क्या बहुत है भीड़ 'मुजीबी' कुचल न जाऊँ कहीं