ख़स्ता-जानी में कोई शाख़ हरी चाहते हैं तिरे बीमार तिरी चारागरी चाहते हैं रौशनी बन के उतर शाम के मेहराबों पर अब तिरे लोग तिरी जल्वागरी चाहते हैं चाक-दामानी से दिखते हैं तअ'ल्लुक़ अपना इश्क़ में हम भी कहाँ बख़िया-गरी चाहते हैं किस क़दर दश्त से मानूस हुए हैं शोरफ़ा छोड़ कर ऐश-ओ-तरब दर-ब-दरी चाहते हैं और कुछ और महक शाम की मख़मूर हुआ हम तिरी गोद गुलाबों से भरी चाहते हैं