ख़ुदा ही उस चुप की दाद देगा कि तुर्बतें रौंदे डालते हैं अजल के मारे हुए किसी से न बोलते हैं न चालते हैं ज़लील होते हैं ऐब हैं ख़ुद जो ऐब उस में निकालते हैं उन्हीं के ऊपर ही ख़ाक पड़ती जो चाँद पर ख़ाक डालते हैं तलव्वुन-ए-ऐश-ओ-ग़म से बाहम ज़मीन ये नंग-ए-आसमाँ है कि मुँह से हम ख़ून डालते हैं वो रंग-ए-नौ-रोज़ उछालते हैं न घर के मानिंद माह हर शब मज़े उड़ाते हैं हम-दमों से क़रार फ़र्दा का रोज़ कर के हमें क़यामत पे टालते हैं पिए हुए हैं शराब-ए-साक़ी चढ़ी है मस्ती-ए-पाक-बाज़ी वो बादा-कश में मुदाम-ए-साक़ी जो दुख़्त-ए-रज़ को खँगालते हैं मुदाम बरहम मिज़ा के आरे सरों पे चलते हैं आशिक़ों के बना के गेसू-ए-मुश्क-बू को वो माँग जिस दम निकालते हैं जला रहे शम-ए-बज़्म साईं उठा के पहलू से अपने हम को रक़ीब को मिस्ल-ए-दिल बग़ल में मियान-ए-महफ़िल बिठालते हैं किसी को बातों में हैं लगाते किसी को फ़िक़्रों में हैं उड़ाते कलीम से हम-कलाम हो कर मसीह को दम में टालते हैं बिसात-ए-उल्फ़त है वो निराली जहाँ में जाँ-बाख़्ता खिलाड़ी जुआ भी ये बुत जो खेलते हैं तो दिल की कौड़ी उछालते हैं जुनूँ की बद-नामियाँ हैं जितनी हम आप ऐ 'शाद' उठा रहे हैं न थोंंपने कोहकन के सर हैं न क़ैस-ओ-वामिक़ पे ढालते हैं