ख़त्म शोर-ए-तूफ़ाँ था दूर थी सियाही भी दम के दम में अफ़्साना थी मिरी तबाही भी इल्तिफ़ात समझूँ या बे-रुख़ी कहूँ इस को रह गई ख़लिश बन कर उस की कम-निगाही भी उस नज़र के उठने में उस नज़र के झुकने में नग़मा-ए-सहर भी है आह-ए-सुब्ह-गाही भी याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख़्त-गीरी पुर अश्क भर के उट्ठी थी मेरी बे-गुनाही भी पस्ती-ए-ज़मीं से है रिफ़अत-ए-फ़लक क़ाएम मेरी ख़स्ता-हाली से तेरी कज-कुलाही भी शम्अ भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा 'मजरूह' मस्जिदों में की मैं ने जा के दाद-ख़्वाही भी