क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और ला-कलामी है वहाँ बात यहाँ है कुछ और बुझ गई आतिश-ए-गुल देख तू ऐ दीदा-ए-तर क्या सुलगता है जो पहलू में धुआँ है कुछ और पानी उस में से भरें इस में गिरें यूसुफ़-ए-दिल चश्मा-ए-चाह-ए-ज़क़न और कुआँ है कुछ और जीते-जी मौत का डर बा'द-ए-फ़ना ख़ौफ़-ए-अज़ाब जुज़ ग़म-ओ-रंज यहाँ है न वहाँ है कुछ और हुस्न-ए-सूरत पे न जा देख वहीं मा'नी को एक हैं का'बा-ओ-बुत-ख़ाना कहाँ है कुछ और तुम समझते हो मिरी बे-ज़ेहनी में है कलाम लब-ए-गोया की क़सम ज़िक्र यहाँ है कुछ और बादा-कश वो हूँ करूँ शीशे के शीशे ख़ाली पर लगाऊँ यही रट नश्शे में हाँ है कुछ और क़िस्मत-ए-'शाद' में जुज़ ग़म जो यहाँ कुछ भी नहीं ऐ हवस ले चल उधर को कि जहाँ है कुछ और