ख़ौफ़-ए-ज़ुल्मत से लरज़ती है फ़ज़ा अब के बरस ज़हर में डूब गई बाद-ए-सबा अब के बरस चैन सड़कों पे मयस्सर न सुकूँ है घर में इस तरह फैली है दहशत की वबा अब के बरस दिल की आँखों ने हक़ाएक़ से चुरा लीं नज़रें ओढ़ ली फ़िक्र ने बर्फ़ीली रिदा अब के बरस पाँव में डाल दी ज़ंजीर हवा-ए-शब ने फिर भी आज़ाद है मौसम की अना अब के बरस मैं भी गुज़रा हूँ जुनूँ-ख़ेज़ मराहिल से मगर फाड़ कर फेंक दी वहशत की क़बा अब के बरस कैसे आएगा यहाँ कोई परिंदा 'नश्तर' कर्ब-अंगेज़ है मौजों की सदा अब के बरस