ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं वो लोग मय से ज़ियादा नशे पे गिरते हैं समेट लेगा वो अपनी कुशादा बाँहों में जो गिर रहे हैं इसी आसरे पे गिरते हैं ये इश्क़ है कि हवस इन दिनों तो परवाने दिए की लौ को बढ़ा कर दिए पे गिरते हैं गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ तो सुब्ह अश्क मिरे नाश्ते पे गिरते हैं इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र' अभी तो संग ज़रा फ़ासले पे गिरते हैं