ख़ुशामद कर के वो पहरों कभी मुझ को मनाता है उसे मेरी तरह से चाहने का ढंग आता है जहान-ए-हुस्न की रानाइयों में शौक़ का आलम शरारत जब भी दिल करता है दिलबर मुस्कुराता है ब-सद लुत्फ़-ओ-करम ले कर मुझे जाता है दरिया तक डुबो कर मुझ को ख़ुद भी वो उसी में डूब जाता है ब-वक़्त-ए-ख़ास मुझ को मुन्कशिफ़ करता है वो मुझ पर वो अपनी शान-ए-यकताई का जल्वा यूँ दिखाता है लकीरें मेरे हाथों की यकायक जगमगाती हैं मिरे हाथों में जिस लम्हा तुम्हारा हाथ आता है मुझे इस क़िस्म की कोई शिकायत ही नहीं उस से जलाता है कुढ़ाता है सताता है रुलाता है यही क़िस्सा है मौत-ओ-ज़िंदगी का ऐ मिरे हमदम कोई अपनी अदाएँ दिल-रुबा के रुख़ दिखाता है 'सुहैल' इस तरह लिखता है वो ख़ुद-आराई का क़िस्सा वो अपना नाम लिख कर फिर तुम्हारा नाम लाता है