ख़ुश्बू-ए-गुल से जहाँ सैराब था कलियों का दिल जाने क्यूँ बेताब था ज़िंदगी सा ज़िंदगी जीने का शौक़ शब का साया या सहर का ख़्वाब था दिल की कश्ती पार लगती किस तरह हौसला माँझी का ग़र्क़-ए-आब था उम्र भर ठोकर की ज़द में ही रहा फिर भी दिल तो गौहर-ए-नायाब था मुस्कुरा कर खिल उठा सहरा में भी ख़ंदा-ज़न ग़ुंचा अजब शादाब था जुस्तुजू में जिस की 'उज़मा' मिट गई उस मोहब्बत का नशा कम-याब था