ख़ुश-फ़हमियों के खेल की अब क्या सबील है काग़ज़ की एक नाव है और ख़ुश्क झील है सर पर उठाए धूप को सूरज की तरह चल मंज़िल कहाँ ये सिलसिला-ए-संग-ए-मील है लाशों के ढेर में अभी ज़िंदा तो हूँ मगर मेरे भी सर पे उड़ती हुई एक चील है साया भी बंद मुट्ठी में रखता है भींच कर ऊँचा सा ये दरख़्त निहायत बख़ील है मैं घाव गहरे पानियों का हूँ न मुझ से मिल तू मुझ में डूब जाएगी नन्ही सी झील है दरवाज़े खिड़की मुझ पे 'मुसव्विर' हैं सब ही बंद सरमा का ठिठुरा चाँद है और शब तवील है