लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में मैं ने लौटाया उसे इक नज़्म की तकनीक में बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में फ़ैसले महफ़ूज़ हैं और फ़ासले हैं बरक़रार गर्द उड़ती है यक़ीं की वादी-ए-तश्कीक में सी के फैला दूँ बिसात-ए-फ़न पे मैं दामान-ए-चाक डोर तो गुज़रे नज़र की सोज़न-ए-बारीक में मैं ज़ियारत-गाह-ए-आगाही से लौट आया हूँ दोस्त फूल लाया हूँ अलम के हदिया-ए-तबरीक में बोल मेरे सुर को छूते छूते रह जाते हैं 'साज़' आह ये कैसी कसर है दर्द की तहरीक में