ख़्वाब क्या हैं शराब की झीलें नींद आए तो हम ज़रा पी लें एक सूरज हज़ार-हा किरनें खुल गई हैं हयात की रीलें तेज़ मग़रिब की हो गई है हवा थरथराने लगी हैं क़िंदीलें शहर की गर्द ही लिपट जाए कोई अपना मिले तो हम जी लें फ़र्त-ए-ग़म से चटख़ गए अल्फ़ाज़ कैसे निकलेंगी रूह से कीलें ये भी घर हो गया है नज़्र-ए-फ़साद इस में रहती थीं कुछ अबाबीलें बात अपनी बनेगी क्या 'असरार' ज़ेहन में रह गई हैं तावीलें