ख़्वाहिशों का बदन समुंदर है रूह उस के यक़ीं का मज़हर है कभी ख़ुश हो गया कभी ग़मगीं मेरा मौसम तो मेरे अंदर है बस वही क्यों पसंद है मुझ को जो मिरी दस्तरस से बाहर है कोई भी मुतमइन नहीं मिलता आदमी का यही मुक़द्दर है एक हो जिस का ज़ाहिर-ओ-बातिन सच तो ये है वो सब से बेहतर है अपनी ही ज़ात में हैं सब महसूर अपना अपना हर एक का घर है