ख़याल-ओ-ख़्वाब पे इस तरह छा गया है कोई मिरे वजूद से मुझ को चुरा गया है कोई उदासी छाई है बज़्म-ए-सुख़न में ये कैसी ग़ज़ल सुनाते सुनाते रुला गया है कोई निगह में कोई भी शय उस के बिन नहीं जचती कुछ इस अदा से निगाहें मिला गया है कोई किनारे ला के डुबोया है मेरी कश्ती को ख़ुद-ए'तिमादी से जीना सिखा गया है कोई जिगर में ज़ख़्म 'शफ़ीक़' आँख में नमी दे कर मिरे ख़ुलूस की क़ीमत चुका गया है कोई