कू-ए-ज़ुल्मात से सूरज का गुज़र होने तक कितने पामाल हुए ख़्वाब सहर होने तक टिमटिमाते हुए जुगनू का है एहसान बड़ा जिस की मंज़ूर-ए-नज़र हूँ मैं सहर होने तक बीज और पौदे की माबैन थी बंदिश कितनी फूल फल बनने तलक और शजर होने तक तू नहीं पिघलेगा पत्थर भी पिघल जाएगा मेरी बातों का तिरे दिल पे असर होने तक एक शे'र और सही आँखों से टपके ऐ 'शफ़ीक़' इक ग़ज़ल और सही ख़ून-ए-जिगर होने तक