ख़िज़ाँ के दौर में भी हम बहार बन के छाए हैं ग़मों के साए में भी रह के हम तो मुस्कुराए हैं चराग़ अम्न के बुझे बुझे हुए थे हर तरफ़ डरे हुए दिलों को हम ने हौसले दिलाए हैं हमारा क्या बिगाड़ेंगी ये नफ़रतों की आँधियाँ क़दम रह-ए-हयात में कुछ इस तरह बढ़ाए हैं ग़मों से खेलते हुए ये याद रखना चाहिए जहाँ में खो के कुछ न कुछ बड़े मक़ाम पाए हैं हुई है हम में तुम में जब से दूरियाँ ऐ जान-ए-मन न तुम ही मुस्कुराए हो न हम ही मुस्कुराए हैं तिरी ही बज़्म में नहीं तिरे लिए तिरी क़सम जहाँ भी हम गए सलामती के जाम उठाए हैं बुलंदियों को छूने ही के वास्ते जहान में नए-नए तरक़्क़ियों के रास्ते बनाए हैं