ख़ूब इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने ये इरशाद किया बज़्म में उस ने त'अल्ली जो कल अकबर की सुनी न तिरी फ़ौज न शागिर्द न पैरौ न मुरीद न तू अर्जुन है न सुक़रात ऋषी है न मुनी किस नगीं पर हैं तिरे नक़्श के आसार ‘अयाँ नोट-बुक तेरी शिकस्ता तिरी पेंसिल है घुनी फ़िक्र से ज़िक्र से 'इबरत से तुझे काम नहीं वाह-वा के लिए लफ़्ज़ों की दुकाँ तू ने चुनी तब' में तेरी वही ख़ामी-ए-हिर्स-ए-दुनिया आतिश-ए-ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से न जली है न भुनी ख़ुद-परस्ती है बहुत ख़ल्क़ की ख़िदमत कम है दिल-दही कम है तो है दिल-शिकनी चार गुनी