ख़ुद अपने फ़न में जो कामिल नहीं है जहाँ में वो किसी क़ाबिल नहीं है वही नख़्ल-ए-तमन्ना क्यों हरा हो कि जड़ मोहकम जिसे हासिल नहीं है सफ़ीना क्यों हमारा डगमगाए कि बच आने को क्या साहिल नहीं है जो पर्दा ज़ेहन-ए-इंसाँ पर पड़ा था वो पर्दा उठ गया हाइल नहीं है ये इल्म-ओ-फ़न की दुनिया है ऐ 'बासिर' मुकम्मल जो अभी हासिल नहीं है