वो जो भी करें शिकवे ख़ामोश सुना करना दस्तूर है उल्फ़त का अपनों से गिला करना तुर्बत पे मिरी आ कर इतनी तो वफ़ा करना दो फूल चढ़ा कर तुम बख़्शिश की दुआ करना बेचैन रहा अब तक उस बुत की मोहब्बत में होता वो नहीं मेरा आख़िर मुझे क्या करना शेवा ही रहा अपना ज़िद उन की उठाने का उन की भी ये आदत है अपना ही कहा करना सय्याद न कर ऐसा कम्बख़्त सितम है ये बुलबुल को बहारों में गुलशन से जुदा करना दुनिया के सितम हैं कुछ ऐसे ही यहाँ 'बासिर' बे-दर्द ज़माने में अच्छों का बुरा करना