ख़ुद बन गई है बात बनाने में मैं न था इस वाक़िए के कोई फ़साने में मैं न था मंज़र को साथ ले गई सूरज की रौशनी दिन के हसीन रंग मिटाने में मैं न था जैसे उफ़ुक़ पे खींच दे कोई लकीर सी इस तरह से परिंदे उड़ाने में मैं न था कुछ दोस्तों के हाथ भी मल्बूस इस में थे तन्हा फ़क़त फ़ुतूर जगाने में मैं न था होंटों पे सीधे सादे जो आए थे कह दिए लफ़्ज़ों के तल्ख़ तीर चलाने में मैं न था क़ुर्बत ज़रा सी बढ़ते ही वो तो सिमट गया वर्ना फ़ुज़ूल छुपने छुपाने में मैं न था सूना सा रस्ता धूप शजर दूर इक सदा तस्वीर ऐसी कोई दिखाने में मैं न था दरिया की आती जाती सी लहरें तका करूँ साहिल पे ऐसी छाप बिछाने में मैं न था 'परवेज़' और बात कि हुशियार हूँ बहुत जादू मगर किसी पे चलाने में मैं न था