ख़ुद को फ़रेब-ओ-मक्र-ओ-दग़ा के ख़िलाफ़ रख दिल अपना आइने की तरह पाक-साफ़ रख मुझ को हक़ीक़तों की फ़ज़ाओं में उड़ने दे तू अपने पास तज़्किरा-ए-कोह-ए-क़ाफ़ रख इक़रार जिस की ज़ात का रोज़-ए-अज़ल किया उस की ज़मीन पर न बुत-ए-इंहिराफ़ रख शमशीर के बग़ैर किसी काम का नहीं नादान अपने साथ न ख़ाली ग़िलाफ़ रख माशूक़-ए-जावेदाँ को रिझाने के वास्ते कपड़ों से बढ़ के क़ल्ब-ओ-जिगर पाक-साफ़ रख टुकड़े दिखाई देगा तुझे चेहरा-ए-नशात तू दिल के आइने में न कोई शिगाफ़ रख शेवा है तेरा हक़ की हिमायत का ऐ 'शफ़ीअ'' जो हक़ नहीं तू उस से सदा इख़्तिलाफ़ रख