खुल गया उक़्दा-ए-हस्ती तो कफ़न माँग लिया ज़ीस्त ने मौत से जीने का चलन माँग लिया फूट कर सीना-ए-कोहसार से बहने के लिए चश्मा-ए-आब ने दामान-ए-दमन माँग लिया क्या तअज्जुब है अगर माँग ली चेहरे से नक़ाब दौर-ए-हाज़िर ने तो पैराहन-ए-तन माँग लिया बन गया हल्क़ा-ए-ज़ुल्मत जो पड़ा अक्स-ए-ज़मीं चाँद ने ख़ुद तो नहीं बढ़ के गहन माँग लिया जिस की आग़ोश में माज़ी की अमानत थी निहाँ उस ने माँगा तो वही क़स्र-ए-कुहन माँग लिया जलने वालों ने भी शहनाज़-ए-ग़ज़ल से 'कौसर' हुस्न-ए-फ़न माँग लिया रंग-ए-सुख़न माँग लिया