क्यों मिरे साथ ही अक्सर ये हुआ करता है मैं जिसे चाहूँ उसे वक़्त जुदा करता है मर भी जाता है तो देता है जहाँ को रेशम जाल अतराफ़ वो अपने ही बुना करता है उस की आँखों से बरसती है सदा ही रेशम किस की यादों में शब-ओ-रोज़ घुला करता है ख़त्म होती हैं वहाँ अपनी निगाहों की हदें कहीं सूरज भी पहाड़ी में ढला करता है आ ही जाते हैं विदाई पे दुल्हन की आँसू किस के रोके से ये सैलाब रुका करता है वर्ना मौजें लब-ए-साहिल भी डुबोतीं साहिल मिरे जीने की कोई है जो दुआ करता है