मुकम्मल हो गए वहशत के सामाँ हम न कहते थे पुकारेंगे हमें दश्त-ओ-बयाबाँ हम न कहते थे न घबरा ऐ दिल-ए-बरगश्ता-सामाँ हम न कहते थे जफ़ा पर हुस्न ख़ुद होगा पशेमाँ हम न कहते थे 'शिफ़ा' वहशत बनेगी मीर-ए-सामाँ हम न कहते थे मोहब्बत करके पछताएगा नादाँ हम न कहते थे ज़रा आने तो दो तुग़्यानियाँ बहर-ए-मोहब्बत में फिर इस्तिक़बाल को आएँगे तूफ़ाँ हम न कहते थे चमन में ग़म से बढ़ कर कौन था तुम क्यों चले आए हज़ारों फूल होंगे चाक-दामाँ हम न कहते थे तुम्हारी शोख़ नज़रें किस लिए उट्ठी थीं मस्तों पर बनेंगे धज्जियाँ जैब-ओ-गरेबाँ हम न कहते थे मसीहा बन तो बैठे हो मसीहाई नहीं आती न होगा तुम से दर्द-ए-दिल का दरमाँ हम न कहते थे बहुत महँगी पड़ेगी बुलबुल-ए-नाशाद आज़ादी क़फ़स बन जाएगा सह्न-ए-गुलिस्ताँ हम न कहते थे मोहब्बत में दिल-ओ-जाँ से 'शिफ़ा' कब काम चलता है फ़िदा करने पड़ेंगे दीन-ओ-ईमाँ हम न कहते थे