किस की ख़्वाहिश में जल रहा है बदन मोम जैसा पिघल रहा है बदन धीरे धीरे बदल रहे हैं ख़याल रफ़्ता रफ़्ता बदल रहा है बदन दुख के काँटों पे सो रहा हूँ मैं ग़म के शो'लों पे जल रहा है बदन हुस्न-ए-पुर-नूर से लिपटने को पागलों सा मचल रहा है बदन सेज पे खिल रहे हैं वस्ल के फूल रात पे इत्र मल रहा है बदन सुब्ह होने को है 'क़मर' साहब इक बदन से निकल रहा है बदन