किस किस को नज़्र करता रहा हूँ ये फ़न तमाम होता है पर सुख़न के लिए ही सुख़न तमाम कुछ लोग कम-नज़र हैं कुछ अपना हुनर भी है लौ भर दिखाई देती है सब को जलन तमाम 'अक़्ल-ओ-ख़िरद के बस में नहीं आ सकेंगे हम दीवाने-पन से होता है दीवाना-पन तमाम इक ख़ौफ़-ए-मुश्तरक का है ये जश्न और क्या आमद किसी की भी हो चहकता है बन तमाम हम बंद कर चुके हैं फ़क़त फूल बेचना काँटे ख़रीद लीजिए या फिर चमन तमाम