किस को ख़याल-ए-गेसू-ओ-ज़ुल्फ़-ए-दोता नहीं दुनिया में कौन है जो असीर-ए-बला नहीं सुन कर सवाल वो मिरा हाँ कहने ही को थे शोख़ी ने उन से पहले ही वाँ कह दिया नहीं कहता है हाथ रख के मिरे सीने पर वो शोख़ कम्बख़्त अब भी दर्द-ए-जिगर कम है या नहीं जिस तफ़्ता दिल को ताका वहीं सैद कर लिया तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ कभी चूकता नहीं किस से हिजाब ख़ाना-ए-ख़ल्वत में करते हो इक मैं हूँ तुम हो और कोई दूसरा नहीं पामाल कर रहे हैं मिरा दिल हुज़ूर क्यों क्या जानते नहीं हैं ये घर आप का नहीं सोग-ए-रक़ीब में ये तिरे दुश्मनों का हाल आँखों में सुर्मा हाथों में रंग-ए-हिना नहीं आईना देख कर तुम्हें क्यों आ गया हिजाब तुम ही हो इस में और कोई दूसरा नहीं 'साबिर' जो ज़ुल्फ़-ए-यार को कहते हो मुश्क-फ़ाम मज़मून तुम को और कोई सूझता नहीं 'साबिर' बुतों को तू ने दिल-ओ-दीं जो दे दिया रोज़-ए-जज़ा का ख़ौफ़ भी मर्द-ए-ख़ुदा नहीं