किस क़दर 'आम हुई जुर्म-ए-मोहब्बत की जब्र इक ज़रा सा जो तिरे नाम पे हम चौंक उठे मेरे हाथों की लकीरों की रविश के आगे राह-ए-पुर-पेच से लिपटे हुए ख़म चौंक उठे इत्तिफ़ाक़न जो नज़र दामन-ए-तर पे डाली फ़र्त-ए-हैरत से मिरे दीदा-ए-नम चौंक उठे मैं ने इस तर्ज़ से मंज़ूम किए दर्द-ए-हयात अहल-ए-अफ़्कार के हाथों में क़लम चौंक उठे हम मोहब्बत में 'इबादत की हदों से गुज़रे हुआ नाराज़ ख़ुदा और सनम चौंक उठे जब मिरे ज़ब्त के 'आलम का हुआ अंदाज़ा शर्मसारी के सबब ज़ुल्म-ओ-सितम चौंक उठे