किस रोज़ हम ने आह-ओ-फ़ुग़ाँ में बसर न की थी रात कौन सी जो तड़प कर सहर न की इस दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ में ये ख़ुद्दारी-ए-निगाह दम पर भी बन गई सू-ए-साक़ी नज़र न की बज़्म-ए-जहाँ से जाते हुए क्यों किसी ने भी मुड़ कर निगाह-ए-जानिब-ए-दीवार-ओ-दर न की ये एहतियात-ए-पास-ए-मोहब्बत तो देखिए करनी थी उन से ग़म की शिकायत मगर न की कोताही-ए-नज़र थी कि ना-क़द्री-ए-सुख़न 'जर्रार' हम ने पेश मता-ए-हुनर न की