किस तरह चैन से दम भर शब-ए-फ़ुर्क़त में रहे हाए वो दिल जो तिरे वस्ल की हसरत में रहे हम पस-ए-मर्ग भी बेताबी-ए-फ़ुर्क़त में रहे कभी बाहर निकल आए कभी तुर्बत में रहे तीरगी अब न हमारी शब-ए-फ़ुर्क़त में रहे उन की ज़ुल्फ़ों में रहे ग़ैर की तुर्बत में रहे कू-ए-क़ातिल में रहे हम ये अज़िय्यत में रहे नीम-बिस्मिल की तरह शौक़-ए-शहादत में रहे सुब्ह तक मुझ से वो लिपटा शब-ए-वसलत में रहे रात भर आज असर जज़्ब-ए-मोहब्बत में रहे ग़ैर के अश्कों से धोएँ तो न दामन से छुटे इतनी शोख़ी तो मिरे ख़ून की रंगत में रहे रंग हल्का सा हो जिन फूलों का वो पहनो तुम कुछ तकल्लुफ़ भी मिरी जान नज़ाकत में रहे ग़ैर के साथ वो जब फूल चढ़ाने आए हम बहुत दिल को सँभाले हुए तुर्बत में रहे तेरी सरकार में इंसाफ़ यही है ऐ इश्क़ आरज़ू कोई निकाले कोई हसरत में रहे ज़ब्ह के वक़्त वो ज़ानू पे मिरा सर रख ले कुछ तो आराम का पहलू भी अज़िय्यत में रहे दम-ए-ख़ंदा दर-ए-दंदाँ का अगर अक्स पड़े कुछ चमक भी तिरे रुख़्सार की रंगत में रहे लुत्फ़ क्या पाए हैं हँस बोल के हम ने तुम ने गुल-ओ-बुलबुल की तरह बाग़-ए-मोहब्बत में रहे पूछें अहवाल मिरा वो तो ये कहना क़ासिद शब को बेचैन बहुत दर्द की शिद्दत में रहे दिल न क़ाबू में रहा देख के सूरत उन की ग़श से फ़ुर्सत हुई हम को तो हैरत में रहे मैं तो घबरा के चला हूँ किसी कूचे की तरफ़ बेकसी आ के मिरे घर शब-ए-फ़ुर्क़त में रहे बद-गुमाँ हूँ मैं दिखाए न किसी को सूरत या मिरे दिल में रहे या कोई ख़ल्वत में रहे रुख़-ए-रौशन पे जो तुम ज़ुल्फ़-ए-सियह बिखरा दो फिर न कुछ ख़ौफ़ सहर का शब-ए-वसलत में रहे बाद मुर्दन न जगह पाई किसी कूचे में मुफ़्त बर्बाद हसीनों की मोहब्बत में रहे मिरी तुर्बत से लिपट कर ये किसी का कहना आप अब हश्र तलक वस्ल की हसरत में रहे ज़ानू-ए-हूर पे सोया किए सर रक्खे हुए तिरे कुश्ते भी बड़ी ऐश से तुर्बत में रहे बाद मरने के खुली हैं जो हमारी आँखें है इशारा तिरे दीदार की हसरत में रहे धज्जियाँ शैख़ की इस तरह उड़ाओ रिंदो एक भी तार न दस्तार-ए-फ़ज़ीलत में रहे बे-नक़ाब आ के जो वो क़ब्र पे ग़म करते हैं चाहते हैं कि मिरी ना'श न तुर्बत में रहे कभी दिल थाम के बैठे कभी घबरा उट्ठे क्या कहें आप से क्यूँकर शब-ए-फ़ुर्क़त में रहे ज़ब्ह करता कोई ज़ानू से दबा कर सीना हाए मुश्ताक़-ए-शहादत इसी हसरत में रहे ख़ुश-नसीबी है जो फिरता हूँ तिरे कूचे में आरज़ू है यही गर्दिश मिरी क़िस्मत में रहे ग़ैर की क़ब्र पे वो फूल चढ़ाया किए रोज़ आसरा हम भी लगाए हुए तुर्बत में रहे हज़रत-ए-शैख़ जो मयख़ाने में आएँ 'नौशाद' एक भी तार न दस्तार-ए-फ़ज़ीलत में रहे