किस तरह रख लूँ साथ किसी हम-सफ़र को मैं पहचानता हूँ ख़ूब हर इक मो'तबर को मैं दामन में जिस के खेल रही हो शब-ए-सियाह कैसे करूँ क़ुबूल भला इस सहर को मैं रोता है दिल सियासत-ए-अहद-ए-जदीद पर जब देखता हूँ ग़म से परेशाँ बशर को मैं उम्र-ए-दराज़ 'ख़िज़्र' मुबारक हो आप को अपना रहा हूँ ज़िंदगी-ए-मुख़्तसर को मैं 'रहबर' नशात-ओ-ऐश की मंज़िल क़रीब है तय कर चुका हूँ ग़म की हर इक रहगुज़र को मैं