किस तरह यारों ने पोशीदा ख़ज़ाने ढूँडे फिर यही ज़ख़्म-ए-दरूँ कौन न जाने ढूँडे हम जो गुज़रे हैं ख़राबे से तो हैरत ये है जितने ढूँडे हैं मोहब्बत के फ़साने ढूँडे ख़ैर ये जान अमानत थी सो जानी थी कभी क्या से क्या उस ने भी खोने के बहाने ढूँडे उस के पहलू में हैं तो रैन-बसेरा कर लें नित नए कौन कहाँ रोज़ ठिकाने ढूँडे आज फिर मैं ने किताबों से महक पाई है आज फिर मैं ने कहीं फूल पुराने ढूँडे आए ज़ानू में तो सर धर दिया उस के आगे सोई पहलू में तो बाज़ू के सिरहाने ढूँडे