कितनी मुश्किल से तक़ाज़ा पस-ए-गुफ़्तार खुला तो कहीं जा के ये पैराया-ए-इज़हार खुला कौन वारिद हुआ बस्ती में कि सब सौदागर छोड़ के आए हैं बाज़ार का बाज़ार खुला सर कहीं ख़म है कहीं पेच उलझते जाएँ तब-ए-मदहोश सँभल हल्क़ा-ए-दस्तार खुला ख़ैर हँसने से तुम्हारे तो है दुनिया वाक़िफ़ मेरा गिर्या भी खुला तो पस-ए-दीवार खुला कैसे चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश होगी राज़ उस वक़्त खुला हम पे कि जब दार खुला हदफ़-ए-चश्म-ए-सियह 'सोज़' मैं बनना चाहूँ जाए ख़ाली न किसी तौर कोई वार खुला