किसे देखते किसे पूछते कि हम आप कुश्ता-ए-हाल थे सर-ए-लब कुछ और थे मसअले पस-ए-जाँ कुछ और सवाल थे जो लहूलुहान किए गए सर-ए-रह जो मार दिए गए वो शग़ाल तो न थे दश्त के मिरे शहर ही के ग़ज़ाल थे उठा पर्दा रू-ए-गुमाँ से जब तो खुला अजब ही तिलिस्म-ए-शब वो तमाम चेहरे भी ख़्वाब थे वो सब आइने भी ख़याल थे बढ़े जितने राह में पेच-ओ-ख़म हुआ और जज़्ब-ए-सफ़र बहम जो मलाल थे मिरे हम-क़दम कहीं थमने वाले मलाल थे बड़ी सब्र-कश थीं मसाफ़तें कि क़दम क़दम थीं क़यामतें मिरी हिम्मतें तो निहाल थीं मिरे हौसले तो बहाल थे