किसी दर पे जाने को जी चाहता है वफ़ा आज़माने को जी चाहता है उठाया था जिस बज़्म से हम को इक दिन वहीं फिर भी जाने को जी चाहता है हुए मुंदमिल ज़ख़्म-ए-दिल मेरे लेकिन नए ज़ख़्म खाने को जी चाहता है मआ'ल-ए-मोहब्बत समझता हूँ फिर भी कहीं दिल लगाने को जी चाहता है हैं कैसे मज़े के तिरे झूटे वा'दे कि फिर धोका खाने को जी चाहता है वो फिर आज कुछ हम से रूठे हुए हैं उन्हें फिर मनाने को जी चाहता है है मुद्दत से सूनी मिरे दिल की महफ़िल तुम्हीं से सजाने को जी चाहता है जो रौशन हैं महफ़िल में अक़्ल-ओ-ख़िरद से वो शमएँ बुझाने को जी चाहता है जो सोए हुए दिल में हलचल मचा दे वो तूफ़ाँ उठाने को जी चाहता है 'हबीब' आग भर दें जो सीने में सब के वो नग़्मे सुनाने को जी चाहता है