क्या कहूँ क्या क्या गया जब अपना काशाना गया ख़ुम गया साक़ी गया और हम से मय-ख़ाना गया हो गए कितने ही गुम अक़्ल-ओ-ख़िरद की राह में मंज़िल-ए-मक़्सूद तक तो सिर्फ़ दीवाना गया गोशा-ए-तहज़ीब में भी घात में सय्याद है अब कभी का फ़र्क़-ए-आबादी-ओ-वीराना गया आज की इस ज़िंदगी के तेज़-रौ तूफ़ान में वक़्त-ए-ज़िक्र-ए-साग़र-ओ-मीना-ओ-पैमाना गया जीत ले क़ल्ब-ओ-जिगर क़ुदरत का अब वो वक़्त है अब सनम के जीतने का लुत्फ़-ए-अफ़्साना गया ज़िंदगी ने अब तराशे नौ-बुतान-ए-दिल-रुबा वो पुराना तर्ज़-ए-सज्दा और बुत-ख़ाना गया हम ज़माने के रुख़-ओ-रफ़्तार की बातें करें अब वो लुत्फ़-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार-ए-जानाना गया आहन-ओ-तेशा की है झंकार नग़्मा वक़्त का हो गया ख़ामोश मुतरिब शे'र-ए-रिंदाना गया ख़ैर मक़्दम हम नए दिल से करें अब ऐ 'हबीब' रात गुज़री शम्अ' रुख़्सत और परवाना गया