किसी हिकमत किसी तदबीर से बाहर निकले पाँव इक बार तो ज़ंजीर से बाहर निकले यूँ हमाइल हुई कल शाम तिरी याद कि हम सुब्ह-दम नाला-ए-शब-गीर से बाहर निकले इश्क़ में शहद है इस राज़ से पर्दा उट्ठा लोग जब बू-ए-मुग़ाफ़ीर से बाहर निकले आज फिर बख़्त ने दरवाज़े पे दस्तक दी थी आज भी हम ज़रा ताख़ीर से बाहर निकले उस की जा वो नहीं दीवार ये अपना दिल है उस से कह दे कोई तस्वीर से बाहर निकले हिज्र का ग़म भी नहीं वस्ल की ख़्वाहिश भी नहीं ले मोहब्बत तिरी जागीर से बाहर निकले कुछ मज़ा आया है जीने का हमें भी 'अख़लाक़' जब गुज़रगाह-ए-दसातीर से बाहर निकले