किसी के रू-ए-ग़म-ज़दा पे जब कभी नज़र गई ये मेरा दिल तड़प उठा या मेरी आँख भर गई हमारी उम्र-ए-रफ़्ता क्या मलूल क्या शगुफ़्ता क्या भली थी या बुरी थी जो गुज़र गई गुज़र गई वफ़ा के एक मोड़ पर गया था कोई छोड़ कर हयात जैसे बस उसी मक़ाम पर ठहर गई कमाल ख़द्द-ओ-ख़ाल थे सियह ख़मीदा बाल थे वो तमकनत ऐ साहिब-ए-जमाल अब किधर गई जो राह-रौ हैं कम-नज़र सफ़र भी उन का क्या सफ़र वही है उन की हद जहाँ तक उन की रहगुज़र गई बला की सख़्त जान थी ज़मीं पे आसमान थी वही ये क़ौम है अदू की सरज़निश से मर गई उजड़ गया था गुल्सिताँ ब-दस्त-ए-मौसम-ए-ख़िज़ाँ सो फिर बहार आ गई कली कली सँवर गई