किसी की ज़ुल्फ़ नहीं लब की गर्मियाँ भी नहीं गुलों पे आज तो आवारा तितलियाँ भी नहीं अभी ये हाल हुआ इस पे कश्तियाँ गुज़रीं वो गाँव जिस पे कभी छाईं बदलियाँ भी नहीं हमारा घर है कि दीवारों की नुमाइश है कोई किवाड़ तो क्या इस में खिड़कियाँ भी नहीं गराँ थी शब तो मिरी सुब्ह भी हिरासाँ है अभी उफ़ुक़ पे वो पहले सी सुर्ख़ियाँ भी नहीं असीर-ए-जिस्म है जाँ और ये बदन अपना कमाल का है क़फ़स जिस में तीलियाँ भी नहीं गई है उन पे भी अब उस की बर्क़-बार नज़र दरख़्त जिन पे हमारे तो आशियाँ भी नहीं सुलूक उस ने मोहब्बत में वो किया 'बेबाक' हुआ जो हम से अदावत के दरमियाँ भी नहीं