किसी की नर्गिस-ए-मख़मूर कुछ कह दे इशारों में मज़ा है रात दिन चलती रहे परहेज़-गारों में जुनूँ में देखिए मैदान किस के हाथ रहता है पड़ी है आबलों में फूट और एका है ख़ारों में वो शर्माई हुई आँखें वो घबराई हुई बातें निकल कर घर से वो घिरना तिरा उम्मीदवारों में पलक उठती नहीं मेरी तरफ़ क्या थक गईं आँखें अभी तो हो रही थीं ग़ैर से बातें इशारों में कोई जन्नत का ख़्वाहाँ है कोई कौसर का तालिब है उड़ा करती है बे-पर की हमेशा बादा-ख़्वारों में जलाना 'दाग़' का अच्छा नहीं ये दम ग़नीमत है कि ऐसा बा-वफ़ा इक-आध निकलेगा हज़ारों में