किसी को जहाँ में है ग़म से मफ़र क्या है दरिया तो इस में न होंगे भँवर क्या निभाते हो रिश्ते मगर फ़ासले से ज़माने पे रखते हो गहरी नज़र क्या हर इंसाँ से झुक झुक के मिलने लगे हो ख़ुदाई का नश्शा गया है उतर क्या मुझे राहबर कारवाँ का बना कर निकालोगे कोई पुरानी कसर क्या तिरा इश्क़ जो चाहे करवा ले वर्ना दरीचे को कोई बनाता है दर क्या ख़फ़ा मेरी नग़्मा-सराई से क्यों हो मुसल्ले पे रहते हो तुम रात भर क्या शुआएँ निकलती हैं शे'रों से 'अम्बर' चढ़ाते हो लफ़्ज़ों पे तुम आब-ए-ज़र क्या