परेशाँ क्यों न हो जाऊँ किसी पागल की सूरत नज़र आती है मुझ को आने वाले कल की सूरत सुना था इश्क़ का रस्ता बड़ा काँटों भरा है मैं सच कहता हूँ मुझ को तो लगा मख़मल की सूरत रग-ओ-पै में न जाने कौन आ कर बस गया है महकती हैं मिरी तन्हाइयाँ संदल की सूरत मोहब्बत का हुकूमत का कि दौलत का नशा हो बना देता है ये इंसान को पागल की सूरत तअ'फ़्फ़ुन का तो सारा शहर आदी हो चुका है महक कर क्या करेंगे हम बहुत संदल की सूरत मिरे जोश-ए-नुमू से तुम अभी वाक़िफ़ नहीं हो पनप सकता हूँ दीवारों से मैं पीपल की सूरत मैं अपने ज़ौक़ को बेदार रक्खूँ कैसे 'अम्बर' बहुत दिन हो गए देखे भरी बोतल की सूरत