किसी को कुछ नहीं मिलता है आरज़ू के बग़ैर मगर ये कौन मिला मुझ को जुस्तुजू के बग़ैर अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात था सर-ए-महफ़िल पयाम सारे मिले मुझ को गुफ़्तुगू के बग़ैर मिरे जिगर का लहू है वफ़ाओं का ज़ामिन हिना भी उस की अधूरी है इस लहू के बग़ैर ख़ुमार ओ कैफ़ में आँखें हैं मय-कदे जैसी नशे में चूर हूँ मैं भी किसी सुबू के बग़ैर हवा ने ख़ार से मिल कर ख़राशें डालीं पर क़बा-ए-गुल तो महकती रही रफ़ू के बग़ैर हमारे ज़िक्र पे हंगामा हो गया अक्सर लिया है नाम कहाँ उस ने हाव-हू के बग़ैर फ़ज़ा उदास है इस वास्ते 'ज़िया'-साहिब बहार कैसे चले मेरे माह-रू के बग़ैर