किसी मंज़र में तुझ बिन दिलकशी पाई नहीं जाती तबीअत लाख बहलाता हूँ बहलाई नहीं जाती मोहब्बत बहस-ए-ग़म के दरमियाँ लाई नहीं जाती ये कश्ती देख इस तूफ़ाँ में दौड़ाई नहीं जाती मुसीबत अपने हाथों इश्क़ की लाई नहीं जाती भड़क उठती है ख़ुद ये आग भड़काई नहीं जाती मिरा इक इक नफ़स करता है ग़म्माज़ी मोहब्बत की सुकूत-ए-मस्लहत से शान-ए-गोयाई नहीं जाती जिसे मैं ज़िंदगी-ए-इश्क़ का हासिल समझता था ज़बाँ पर अब वही रूदाद-ए-ग़म लाई नहीं जाती बयान-ए-आरज़ू तो क्या कि उन के सामने 'अफ़्सूँ' ज़बाँ पर शौक़ की रूदाद भी लाई नहीं जाती