क्यों तिरी गर्मी-ए-गुफ़्तार के क़ाबिल होता मेरे सीने ही में रहता जो मिरा दिल होता शौक़-ए-वारफ़्ता-मिज़ाजी में जो कामिल होता मेरा एक एक नफ़स जादा-ए-मंज़िल होता आम होना थीं मोहब्बत की बहारें वर्ना दर्द अगर दर्द न होता तो मिरा दिल होता कौन तुझ से मिरी रूदाद-ए-मोहब्बत कहता मैं अगर सिर्फ़ तमाशाई-ए-महफ़िल होता मैं ही क्यों तेरे तग़ाफ़ुल की शिकायत करता मैं ही क्यों बाइ'स-ए-रुस्वाई-ए-महफ़िल होता ख़िज़्र आ कर जो मिरी राहनुमाई करता फिर क़दम अपने उठाना मुझे मुश्किल होता मेरा पाना मिरा खोना तुझे आसाँ था मगर तुझ को खो कर तिरा पाना मुझे मुश्किल होता तेरी मग़रूर निगाही अरे तौबा तौबा काश इक़रार-ए-मोहब्बत मिरा बातिल होता राह-ए-मंज़िल में तिरे नक़्श-ए-क़दम भी न मिले वर्ना मंज़िल पे पहुँचना मुझे मुश्किल होता हाल-ए-दिल उस ने कभी मुझ से न पूछा वर्ना हाल-ए-दिल उस से छुपाना मुझे मुश्किल होता तुम ने अच्छा ही किया मेरी तरफ़ रुख़ न किया वर्ना महफ़िल से उठाना मिरा मुश्किल होता हम ही तूफ़ान से मानूस नहीं थे ‘अफ़्सूँ’ वर्ना तूफ़ान का आग़ोश ही साहिल होता