किसी ने रक्खा है बाज़ार में सजा के मुझे कोई ख़रीद ले क़ीमत मिरी चुका के मुझे उसी की याद के बर्तन बनाए जाता हूँ वही जो छोड़ गया चाक पर घुमा के मुझे है मेरे लफ़्ज़ों को मुझ से मुनासिबत कितनी मैं कैसा नग़्मा हूँ पहचान गुनगुना के मुझे मैं ऐसी शाख़ हूँ जिस पर न फूल-पत्ते हैं तू देख लेता कभी काश मुस्कुरा के मुझे कड़ी है धूप तो सूरज से क्या गिला कीजे यहाँ तो चाँद भी पेश आया तमतमा के मुझे उसे भी वक़्त कभी आइना दिखाएगा वो आज ख़ुश है बहुत आइना दिखा के मुझे क़सीदे पढ़ता हूँ मैं उस की दिल-नवाज़ी के जलील करता है अक्सर जो घर बुला के मुझे