किसी से कोई न पूछे मिज़ाज कैसा है तुम्हारी बज़्म का जाने रिवाज कैसा है किसी तरह भी न ज़ख़्म-ए-जिगर भरे अब तक न पूछो ज़ख़्म हैं कैसे इलाज कैसा है सुकूँ नसीब नहीं रौशनी में हीरों की किसी नसीब में हीरों का ताज कैसा है बड़े ख़ुलूस से कल तक गले जो मिलता था छुपाए हाथ में ख़ंजर वो आज कैसा है हुए समाज में पैदा समाज के दुश्मन जदीद दौर का देखो समाज कैसा है पहुँच सकी दर-ए-इंसाफ़ पर न जब आवाज़ जफ़ा-ए-वक़्त पे ये एहतिजाज कैसा है