लुटी बहार तो नज़्म-ए-चमन पे क्या गुज़री न पूछिए कि गुलों के बदन पे क्या गुज़री तुम्हारे शहर में मारे गए जिसे पत्थर किसे है दर्द वो दीवाने-पन पे क्या गुज़री नसीब हो गया उस को मक़ाम हस्ती का न पूछो मोरिद-ए-दार-ओ-रसन पे क्या गुज़री शिकस्त-ए-जाम की आवाज़ है गवाह उस की कि मय-कदे में किसी दिल-शिकन पे क्या गुज़री ज़रूर इल्म है इस का निगाह-ए-साक़ी को कि तंग-ज़र्फ़ी से तिश्ना-दहन पे क्या गुज़री वो एक नाज़-ए-तग़ाफ़ुल से उठ गए लेकिन ख़बर नहीं कि भरी अंजुमन पे क्या गुज़री वतन का आ गया जिस दम ख़याल ग़ुर्बत में 'नज़र' न पूछो ग़रीब-उल-वतन पे क्या गुज़री