किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ उठाएँ किसी माह-पैकर हसीना के जौर-ओ-सितम इतनी फ़ुर्सत कहाँ ज़माने की बे-रहमियों के तसद्दुक़ दिमाग़-ए-नशात-ओ-अलम ही नहीं दिल अपना करे आरज़ू-ए-जफ़ा या उमीद-ए-करम इतनी फ़ुर्सत कहाँ डुबो दें मय-ए-नाब की मस्तियों में फ़लाकत के नक्बत के एहसास को बना लें किसी आमियाना से कूज़े ही को जाम-ए-जम इतनी फ़ुर्सत कहाँ हों आज़ाद-ए-अफ़्कार लेकिन तफ़क्कुर में डूबे हुए से रहें रात दिन तबीअत की बे-वज्ह अफ़्सुर्दगी के मज़े लूटें हम इतनी फ़ुर्सत कहाँ न माज़ी हमारा न मुस्तक़बिल अपना कुछ इस तौर से हर्फ़-ए-इमरोज़ हैं ग़म-ए-दोश या फ़िक्र-ए-फ़र्दा में 'अख़्तर' करें सर को ख़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ